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जम्मू कश्मीर रियासत और महाराजा हरि सिंह की कहानी, पढ़ें 72 साल पहले कैसे भारत में हुआ विलय

जम्मू कश्मीर में फिलहाल बहुत उथल-पुथल मची हुई है लेकिन इससे भी ज्यादा उथल-पुथल तो सन् 1947 में आजादी के वक्त मची हुई थी। बात सन् 1947 की है, जब जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह भारत की आजादी के वक्त अकेले ही एक साथ तीन-तीन मोर्चों पर तमाम विचारों तथा सत्ता के बड़े नामों से लड़ाई लड़ रहे थे। पहला मोर्चा था उस वक्त के मुस्लिम कान्फ्रेंस और पाकिस्तान सरकार की जो रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिए महाराजा को बराबर धमका रही थी, और जिन्ना 26 अक्तूबर 1947 को ईद श्रीनगर में मनाने की तैयारियों में जुटे थे।

दूसरा मोर्चा था भारत के गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार महाराजा हरि सिंह पर सिर्फ दबाव ही नहीं बना रही थी, बल्कि उन्हें आंखें दिखाते हुए धमका भी रही थी, कि अपनी रियासत को पाकिस्तान में शामिल करो।
तीसरा मोर्चा था, पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके साथियों यानि सरदार पटेल, महात्मा गांधी जैसे दिग्गज नेताओं का। जो रियासत के भारत में विलय को तब तक रोके हुए थे, जब तक महाराजा शेख के पक्ष में गद्दी छोड़ नहीं देते। पंडित नेहरू ने तो ये तक कहा दिया कि अगर पाकिस्तान श्रीनगर पर भी कब्जा कर लेता है तो भी बाद में हम उसको वापस छुड़ा लेंगे, लेकिन जब तक महाराजा हरि सिंह शेख की ताजपोशी नहीं कर देते तब तक कश्मीर रियासत का विलय भारत में नहीं हो सकता।

इसे त्रासदी ही कहा जाएगा, जब महाराजा अकेले इन तीन-तीन मोर्चों पर लड़ रहे थे। वहीं दूसरी त्रासदी तो महाराजा हरि सिंह के साथ उस वक्त घटी जब उनका खुद का सगा बेटा जिसे वो हमेशा ‘टाइगर’ कह कर बुलाया करते थे, वो हरि सिंह को छोड़ पंडित नेहरू के मोर्चे में शामिल हो गया। आज पूरी दुनिया कश्मीर के विवाद को जानती है, चाहे वो अच्छे वक्त पर याद करे, या बुरे वक्त पर, लेकिन इस बीच जिसे इन सबके बीच में याद करना चाहिए। वो शायद इन सबसे गायब है, हरि सिंह को अक्सर लोग सिर्फ किसी खास विवाद के वक्त ही याद करते हैं, लेकिन कभी भी उन्हें वो दर्जा नहीं प्रदान किया गया। असल में जिसके वो हकदार थे, इतिहास ने जितना अन्याय जम्मू कश्मीर के अंतिम शासक महाराजा हरि सिंह के साथ किया, उतना शायद किसी और के साथ न किया हो।

जम्मू कश्मीर को लेकर इतना कुछ लिखा गया है जितना शायद भारत की किसी भी रियासत को लेकर न लिखा गया हो। जब किसी विषय पर जरूरत से ज्यादा लिखा, बोला या कहा जाए, स्वभाविक ही संदेह होता है कि या तो सच्चाई को छिपाने का प्रयास किया जा रहा है, या फिर उसे इतना उलझाने का प्रयास किया जा रहा है कि बाद में सत्य तक पहुंचना ही मुश्किल हो जाए, या फिर इतने जोर से चिल्लाया जाता है कि उस शोर में सत्य दब कर रह जाए। अपराध बोध से मुक्ति का एक और तरीका भी होता है। अपने पक्ष में ही दूसरे लोग खड़े कर लिए जाएं ताकि भीड़ देखकर खुद को ही लगने लगे कि मेरा पक्ष और फैसला ठीक था।

यह अपनी अंतरात्मा को दबाने की कठिन साधना ही कही जा सकती है। जम्मू-कश्मीर के बारे में पंडित जवाहर लाल नेहरू के भाषण, आलेख और स्पष्टीकरण पढ़ेंगे तो आपको वे एक साथ, ये सभी साधनाएं करते दिखाई देते हैं। जम्मू कश्मीर में सन् 1947 के वक्त जो कुछ भी हो रहा था, उसके लिए किसी न किसी को तो अपराधी ठहराना जरूरी ही था, ताकि इतिहास का पेट भरा जा सके, इसके लिए सबसे आसान शिकार महाराजा हरि सिंह थे, खासकर उस समय जब उनका अपना बेटा कर्ण सिंह (टाइगर) भी उनका साथ छोड़ कर भारत का पक्षधर बन पंडित नेहरू के साथ मिल गया हो।

हरि सिंह के अपने ही खानदान के चिराग कर्ण सिंह अपनी ज्ञान प्राप्ति के बाद राज्याधिकारी बन गए और हरि सिंह मुम्बई में निष्कासित जीवन जीने के लिए अभिशप्त हुए, लेकिन कम्बख्त सच्चाई ऐसी चीज है जो इन सभी तांत्रिक साधनाओं के बावजूद पीछा नहीं छोड़ती।

हर युग का इतिहास साक्षी है कि जब सत्य का सामना करना बहुत मुश्किल हो जाता है, तो उससे बचने के लिए किसी न किसी को सूली पर लटकाना ही पड़ता है।
जम्मू कश्मीर रियासत का विलय देश की नई प्रशासनिक व्यवस्था में अंग्रेजों के चले जाने के लगभग दो महीने बाद 26 अक्तूबर 1947 को हुआ। वह भी तब जब पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर रियासत पर आक्रमण कर दिया और उसके काफी हिस्से पर अपना अधिकार जमा लिया। तब जाकर हरि सिंह ने कश्मीर की सुरक्षा हेतु विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए, पर अक्सर देखा जाता है की इतिहास कुछ चुनिंदा लोगों के ही हाथों में होता है उसे कैसे किस दिशा में मोड़ना है, वे खुद ही इसको तय करते हैं। इसलिए इस घटना के बाद इतिहास में यही प्रचारित किया गया कि महाराजा हरि सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक ही नहीं थे।

जम्मू कश्मीर को आजाद देश बनाना चाहते थे। इसे भारतीय इतिहास की त्रासदी ही कहा जाएगा कि महाराजा ने भी कभी जनता के सामने अपना पक्ष रखने की कोशिश नहीं की। इस सब घटनाओं के बाद शेख अब्दुल्ला द्वारा लिखी उनकी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार में महाराजा हरि सिंह पर और भी ज्यादा दोषारोपण किया। महाराजा हरि सिंह के पुत्र कर्ण सिंह अवश्य अपने पिता का पक्ष देश के सामने रख सकते थे लेकिन उससे पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाराज होने का खतरा था। जिससे कर्ण सिंह की भविष्य की राजनीति गड़बड़ा सकती थी। खैर इन सबसे भी क्या फर्क पड़ने वाला था जब हरि सिंह को कर्ण सिंह की सबसे ज्यादा जरूरत थी उस वक्त तो कर्ण सिंह ने अपने पिता का साथ छोड़ नेहरू के साथ हो लिए थे, क्योंकि कर्ण सिंह की नजरों में उनके पिता भूतकाल से ज्यादा और कुछ भी नहीं थे, पर वहीं दूसरी ओर नेहरू कर्ण सिंह के लिए उनके भविष्य काल से भी कम नहीं थे।

एक वक्त ऐसा भी आया जब कर्ण सिंह ने अपने पिता को सामन्ती परम्परा का खुरचन बताया और खुद को लोकतंत्र का समर्थक, अपने इसी लोकतांत्रिक प्रेम को वो हरि सिंह का साथ छोड़ देने का मुख्य कारण बताते हैं।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि अब तक भारत के साथ जो कुछ भी होता रहा है उसमे ब्रिटेन का सबसे पड़ा हाथ है, वो इसलिए की ब्रिटेन सरकार ने तो अपना मन बना लिया था, कि वो हर हाल में जम्मू कश्मीर रियासत पाकिस्तान की झोली में डाल देंगे, लेकिन उनके दुर्भाग्य से भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के माध्यम से वे केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन कर सकती थी, भारतीय रियासतों का नहीं।

साल 1947, 15 अगस्त से 2 महीने पहले ब्रिटिश लार्ड माउंटबेटन श्रीनगर की यात्रा पर भी गए थे, जहां उनका मकसद महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिए दबाव बनाने का था। महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने लिए तैयार नहीं थे और अंतिम दिन तो उन्होंने दबाव से बचने के लिए माउंटबेटन से मिलने से ही इंकार कर दिया था। महाराजा कहीं रियासत को भारत में न मिला दें, इसको रोकने के लिए ब्रिटेन ने पंद्रह अगस्त तक भारत और पाक की सीमा ही घोषित नहीं की और अस्थाई तौर पर गुरदासपुर जिला पाकिस्तान की सीमा में घोषित कर दिया। इस तकनीक के बहाने महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिए परोक्ष दबाव ही डाला जा रहा था, लेकिन वे इस दबाव में नहीं आए।

उन्होंने कहा किश्तवाड को हिमाचल प्रदेश के चम्बा से जोड़ने वाली सड़क बना ली जाएगी, लेकिन सीमा आयोग की रपट को लार्ड माउंटबेटन आखिर बहुत देर तक तो दबा नहीं सकते थे। जब सीमा आयोग की रपट आई तो शकरगढ़ तहसील को छोड़कर सारा गुरदासपुर जिला भारत में था और इस प्रकार जम्मू कश्मीर रियासत सड़क मार्ग से पंजाब से जुड़ती थी। हरि सिंह एक ओर से निश्चित हो गए।
इसी बीच नेहरू महाराज से नाराज चल रहे थे और उनके प्रति नेहरू का दुराग्रह इस कदर तक बढ़ा कि उन्होंने अब्दुल्ला की खातिर कश्मीर को भी दांव पर लगा दिया। माऊंटबेटन के खासम खास रहे और उस वक्त रियासती मंत्रालय के सचिव वी.पी मेनन के अनुसार, हमारे पास उस समय कश्मीर की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं था।

दिल्ली के पास महाराजा से बात करने का समय ही नहीं था और नेहरू शेख के सिवा किसी से बात करने को तैयार ही नहीं थे, उस वक्त पूरी योजना से अफवाहें फैलाना शुरू कर दीं कि महाराजा तो जम्मू कश्मीर को आजाद देश बनाना चाहते हैं। बस इसका फायदा उठाकर सरकारी इतिहासकारों ने इन अफवाहों को हाथों हाथ लिया और इसे ही इतिहास घोषित करने में अपना तमाम कौशल लगा दिया। जबकि असलियत यह थी कि नेहरू के लखत-ए-जिगर शेख अब्दुल्ला ही रियासत को आजाद देश बनाना चाहते थे। खतरा उनको इतना ही था कि आजाद जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान ज्यादा देर आजाद रहने नहीं देगा और उस पर कब्जा कर लेगा।

इसलिए अपने सपनों के आजाद जम्मू कश्मीर को स्थायी रूप से आजाद रखने के लिए शेख को केवल भारतीय सेना की सुरक्षा चाहिए थी और इसके लिए वो जवाहर लाल नेहरू की मूंछ के बाल बनकर घूम रहे थे।
इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने रियासत पर हमला ही कर दिया और उसका काफी भूभाग जीत लिया, तब भी पंडित नेहरू रियासत का विलय भारत में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुए। उनकी शर्त राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में भी वही थी कि पहले सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दो, तभी जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय स्वीकारा जाएगा और सेना भेजी जाएगी। यही कारण था कि महाराजा को विलय पत्र के साथ अलग से यह भी लिख कर देना पड़ा कि अब्दुल्ला को आपातकालीन प्रशासक बनाया जा रहा है।

एक बार हाथ में सत्ता आ जाने के बाद अब्दुल्ला ने क्या-क्या नाच नचाए, यह इतिहास सभी जानते हैं। अब्दुल्ला ने नेहरू के साथ मिलकर महाराजा हरि सिंह को रियासत से ही निष्कासित करवा दिया और मुम्बई में गुमनामी के अंधेरे में ही उनकी मृत्यु हुई। एक बात है ना कि सच जितना दिखाई देता है उससे ज्यादा छिपा होता है। यही छिपा हुआ सच कहीं ज्यादा कष्टकारी होता है। लार्ड माउंटबेटन भारतीय सरकार से यह आश्वासन लेकर वापस गए थे कि यदि महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में शामिल होते हैं तो उनको कोई एतराज नहीं होगा। इससे साफ-साफ यह दिख जाता है कि माउंटबेटन हरि सिंह को भारत से ना डरने की सलाह देते हुए कह रहे थे कि अगर रियासत चाहे तो पाकिस्तान में शामिल हो सकती है। इसके साथ माउंटबेटन ने हरि सिंह से एक आश्वासन भी लिया था कि वे किसी भी देश में शामिल होने से पहले रियासत में मौजूद प्रजा की राय लेना बहुत जरुरी है।

ताज्जुब है माऊंटबेटन यही सलाह अपने दूसरे मित्र हैदराबाद के नबाब को नहीं दे रहे थे, जिसकी सेनाएं भारत की सेना से भिड़ने की तैयारी कर रही थी। माऊंटबेटन के लिए प्रजा कि राय जानने का स्पष्ट अर्थ यही था कि हर हाल में पाकिस्तान में शामिल हो जाओ। एक संकेत और भी कर दिया कि पाकिस्तान की संविधान सभा भी गठित हो जाने दो। स्पष्ट था कि माउंटबेटन ही रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के महाराजा हरिसिंह की घेराबंदी कर रहे थे। जब हरिसिंह ने उस घेराबंजी को तोड़ दिया, तो माऊंटबेटन ने गुस्से में हरि सिंह के बारे में कहा, ‘ब्लडी बास्टर्ड’, वैसे तो यह गाली ही हरि सिंह की भारत भक्ति का सबसे बडा प्रमाणपत्र है।

यदि नेहरू इस जिद पर न अड़े रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाए, तो रियासत का विलय भारत में 15 अगस्त 1947 से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास दूसरी तरह लिखा जाता। बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था, लेकिन नेहरू ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिए था, बाकी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया। माऊंटबेटन और उनके ऊपर लिखी जीवनी के लेखकों ने तो कभी भी इस बात को छिपाने की कोशिश नहीं की, कि उनकी रुचि रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की थी, लेकिन नेहरु और उनके जीवनीकारों ने सदा ही रियासत के मामले में की गई अपनी गलतियों का टीकरा महाराजा हरि सिंह के माथे पर फोड़ने के सफल प्रयास किए हैं।

इसे हरि सिंह के हृदय की विशालता ही कहना होगा कि वे मुम्बई में चुपचाप अपमान के इस विष को पीते रहे, लेकिन उन्होंने अंतिम सांस तक अपना मुंह नहीं खोला। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की तरह किसी मोहम्मद यूसुफ को पास बिठाकर अपनी जीवनी भी नहीं लिखवाई। मुंबई में लेखकों की कमी तो नहीं थी, लेकिन यदि हरि सिंह किसी भी लेखक को पास बिठा लेते तो यकीनन नेहरू इतिहास के कटघरे में खड़े होते। नेहरू को कटघरे में खड़ा करने की बजाय हरिसिंह ने खुद उस कटघरे में खड़ा होना स्वीकार कर लिया। अब समय आ गया है कि महाराजा हरिसिंह को सलीब से उतारकर इतिहास में उन्हें उनका सम्मानजनक स्थान दिया जाए
-अविनाश राय, पत्रकार, राजनितिक विश्लेषक

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